Tuesday, April 26, 2011

कुदरत की साजिश.....


शिकायत है मुझे सूरज की किरणों से,
जो हर दिन तेरा दीदार करती हैं.
गिला है बारिश की बूंदों से,
जो छूने को तुझे बादलों से गिरती हैं.

खामोश रातों में मेरी तन्हाई पर,
ये चाँद भी अब हँसता है,
तेरी खूबसूरती से शर्मशार हो,
लगता है वो तुझसे जलता है.

मैंने पूछा हवा से गर,
वो जा रही हो तेरी ओर.
मेरी धड़कने तुझे सुना दे.
वो भड़की, और लिया रुख मोर.

ये सूरज, ये बादल, ये चाँद, ये हवा,
सब हँस रहे हैं हमारी दूरी पे,
ऐ खुदा ! ये फासले और नहीं सहे जाते,
मुझे रिहा कर दे इस मजबूरी से.

दुनिया के सितम कम न थे,
मुझे दिन रात रुलाने को.
कि अब कुदरत भी करने लगी साजिश,
मुझे प्यार में जलाने को.

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