Thursday, November 15, 2012

बचपन.....



कितनी  उलझनों  में  आज  घिरा  है  मन,
काश  इन  चिंताओं  को  हम  भुला  पाते।
कभी-कभी  सोचता  है  ये  परेशान  दिल,
काश  वो  बचपन  के  दिन  फिर  लौट  आते।

छोटी-छोटी  खुशियाँ  समेटते,
हर  गम  से  कहीं  दूर  भाग  जाते।
और  नादानियों  की  आड़  में,
वही  गलतियाँ  बार-बार  दोहराते।

उन्ही  सुनी  गलियों  में  कभी,
खिलखिलाहटें  गूंजा  करती  थी
और  आसमान  को  छू  लेने  को,
रंग-बिरंगी पतंगें  उड़ा  करती  थी।


लहरों  से  लड़ने  को  तैयार,
बारिश  में  कागज  की  कश्ती  थी।
बूढी  नानी  की  कहानियों  में,
शरारती  परियों  की  मस्ती  थी।

जी  भर  कर  जीते  थे  हर  पल,
कुछ  ऐसा  वो  ज़माना  था।
थोड़े  की  चाहत  थी, छोटे  से  सपने  थे।
 ख़ुशी  का  न  कोई  पैमाना  था।


अक्सर  याद  आते  हैं  वो  दिन,
जब  आंसुओं  के  संग  हर  गम  बह  निकलते  थे।
बड़े  हुए  तो  आँखें  बंज़र  कर  ली,
अब  गमो  को  संजोये, मन  ही  मन  सिसकते  हैं।

दिल  में  अहम्  और  ईर्ष्या  लिए,
दोस्तों  तक  से  दूर  होते  हैं।
वो  दिन  थे  कोई  और  जब  झगड़  कर,
अगले  ही  दिन  फिर  साथ  खेला  करते  थे।

आँखें  झपकने  लगती  थी  कभी,
हर  दिन  शाम  ढलते-ढलते,
रातें  गुजर  जाती  हैं  अब,
यूँही  करवटें  बदलते-बदलते।

नासमझ  थे  तब  हम  छोटे  थे,
जब  दूध  तक  कड़वी  लगती  थी।
कब-कैसे  फिर  इतने  समझदार  हुए ?
की  wishky  भी  मीठी  लगने  लगी।

बड़ा  होना  अगर  ऐसा  था  तो,
काश  हम  बच्चे  रह  जाते।
मन  में  यूँ  दबे  जज़्बात  न  होते,
दिल  की  बात  सबसे  कह  पाते।




No comments:

Post a Comment