दिन थे वो संग्राम के ,
जीवंत तब आवाम थे .
एक आवाज़ पर महात्मा के,
उठ खड़े हुए, सब गुलाम थे .
सत्य की गहरी नीव पे,
खड़ा भारत स्वाधीन था .
फिर ये कैसा रोग लगा ?
बीमार खुद हकीम था .
स्वार्थ की ऐसी धुंध लगी ,
आशा की किरण भी न दिख रही .
दौलत की चाहत न पूछो तुम,
यहाँ ईमान तक है बिक रही .
जब मौका मिला तो जेबें भरी.
जिन्हें नहीं मिला, उनकी भोवें चढ़ी-
"की दुसरे सब भ्रष्ट हैं,
उन्हें सजा अब दिलानी है.
एक सरकार से लेकर दूजी तक,
चारा से लेकर 2G तक.
देश अपना लुट रहा,
ये बात सब को बतानी है."
अरे चुप रहो! न दिखावा करो,
भ्रष्टाचार क्या मिटाओगे.
कल कल कोई पद मिला,
तुम खुद दबा कर खाओगे.
कितनो से जाकर लड़ोगे तुम ?
जो खुद को बस सुधार लो,
ये देश है तुमसे ही बना.
इसे खुद-ब-खुद तब उबार लो.
लूट रहे जन्मभूमि को,
कैसे खोखले शक्श हो.
गैरत ज़रा भी बची है ग़र,
अरे अब तो माँ को बक्श दो.....
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