Saturday, March 17, 2012

ज़िन्दगी_में_कभी-कभी...




ज़िन्दगी लेती रहेगी,
यूँही इम्तेहान  तेरा,
की मोर पे लाकर,
पूछेगी मक़ाम  तेरा.

चाहत होगी तेरी,
बहुत कुछ  पाने की.
कमियाबियों की ऊँचाइयों,
तक  जाने की.

पर होगा वही,
जो इसने सोचा है.
तू बदल  सकता  नही उसे,
जो तेरे हाथों की रेखा है.

जिनके साथ की उम्मीद है तुझे,
वो भी तब हाथ  छुड़ा  जायेंगे.
दुश्मनो की चोट तो सह ले फिर भी, पर क्या,
गर दोस्त ही इस  कदर  दिल दुखायेंगे.

बहुत पल  आयेंगे  ऐसे,
जब तू इस भीड़ में अकेला होगा.
मत  डरना  उन  अंधेरों  से तब,
की फिर जल्द ही सवेरा होगा.

हर दर्द  मुस्कुरा  कर सहना सीख ले अब,
खुदा से कितनी मर्तबा लड़ेगा तू ?
ख़ुशी की तलाश  में  गम  मिलेंगे  यूँही,
फिर कब  तलक   जीने से यूँ डरेगा तू ?

कुछ अस्क बहने दे तन्हाई में अब,
की कहीं ये चक्ष  न  बंजर  हो जाएँ.
दुःख  में  ही सही, तलाश कर तो देख,
कहीं एक ख़ुशी  का मंजर  मिल  जाये...

कहीं एक ख़ुशी  का मंजर  मिल  जाये...