क्या है ये, किसे पता ?
सोचो तो अजीब है.
कहीं चल रही रफ़्तार से,
तो कहीं ये मरीज़ है .
लगता है किताब है,
पन्ने जिसके कोरे हैं.
या कोई कहानी है,
पात्र जिसमे थोड़े हैं.
अश्वमेघ का अश्व है,
जो भटकता बेलगाम है .
लगाम वही लगा सका,
जो जीतता संग्राम है .
तो क्या ये एक युद्ध है ?
जो कभी कोई जीता नहीं.
या ज़हर का घूँट है,
जीने को जो पीता सभी.
किसकी बनाई राह है ?
की हर कदम पे मोड़ है.
एक दूजे से बांधे हमे,
बड़ी नाजुक ये डोर है.
अनोखे इसके रंग हैं ,
सुख-दुःख की बयार है.
फिर क्या पाने भागे सभी ?
सच्ची दौलत तो प्यार है.
भाग-भाग कर थके,
ये दौर अंतहीन है .
पीछे रह गए अपने,
सब खुद की धुन में लीन है .
परिश्रम से बनाई थी,
फिर नीव कैसे धंस गयी ?
ये कैसा जाल है बुना,
की मकड़ी खुद ही फँस गयी .
जवाब जिसका है नहीं,
"ज़िन्दगी" वो सवाल है .
अंत इसका निश्चित है ,
फिर क्यूँ मचा बवाल है ?
माना स्वाद थोडा तीखा है,
पर साथ में लजीज है .
क्या है ये, किसे पता ?
सोचो तो अजीब है...