Tuesday, July 26, 2011

ज़िन्दगी...एक उलझी पहेली.



क्या है ये, किसे पता ?
सोचो तो अजीब है.
कहीं  चल  रही रफ़्तार से,
तो कहीं ये मरीज़  है .

लगता है किताब है,
पन्ने जिसके कोरे हैं.
या कोई कहानी है,
पात्र जिसमे थोड़े हैं.

अश्वमेघ  का  अश्व है,
जो भटकता बेलगाम  है .
लगाम  वही  लगा सका,
जो जीतता संग्राम  है .

तो क्या ये  एक   युद्ध है ?
जो कभी कोई जीता नहीं.
या ज़हर का घूँट है,
जीने को जो पीता सभी.

किसकी बनाई राह है ?
की हर कदम  पे  मोड़ है.
एक दूजे से बांधे हमे,
बड़ी नाजुक  ये  डोर है.

अनोखे इसके रंग  हैं ,
सुख-दुःख  की  बयार है.
फिर क्या पाने भागे सभी ?
सच्ची  दौलत  तो  प्यार है. 

भाग-भाग कर थके,
ये दौर अंतहीन  है .
पीछे रह गए अपने,
सब  खुद की धुन  में  लीन  है .

परिश्रम  से  बनाई थी,
फिर नीव   कैसे धंस  गयी  ?
ये कैसा जाल  है  बुना,
की मकड़ी खुद ही फँस  गयी .

जवाब   जिसका है नहीं,
"ज़िन्दगी" वो सवाल  है .
अंत   इसका निश्चित है ,
फिर क्यूँ मचा बवाल  है  ?

माना स्वाद थोडा तीखा है,
पर साथ  में  लजीज  है .
क्या है ये, किसे पता ?
सोचो तो अजीब है...